शुक्रवार, 15 मार्च 2024

1164

 ब्रज अनुवाद-रश्मि विभा त्रिपाठी

1-ताँका- कृष्णा वर्मा

1
रंग वासंती
छिटक रहा कौन
पुष्प- कली में
सरसा है यौवन
कौन तोड़ता मौन।

रंग बसंती
छिटकाइ रह्यौ को
फूल करी मैं
सरस्यौ ऐ जोबनु
टोरतु अबोलु को।
2
भुलाना होता 
तो भुला बैठे होते 
जन्मों पहले 
मुड़- मुड़के जन्म  
न लेते तेरे लिए।

बिस् रानौ होतौ
तौ बिसारि बैठत
जन्मनि आगैं
फेरि- फेरि जनम
ना लेत तोरे लऐं।
3
सावनी झूले
आँसू की डोरी थाम
झूलतीं साँसें
याद आएँ सखियाँ
बचपन की प्यारी।

साउनी झूला
अंसुआ डोर गहि
रमकैं साँसैं
यादि आउतिं सखीं
सिसुताई की प्यारीं।
4
बरबस ही  
उड़ते पंछी देख
कोई संदेशा   
तुम्हें भिजवाने को  
फड़क उठें होंठ।

बरबस ई
उड़त पंछी देखि
कोऊ सनेसौ
तुम्हहिं पठइबे
फरकि उठैं औंठ।
5
पका जमके
समय की धूप में
क्योंकि मैं पिता
तुम क्या समझोगे
हूँ भीतर से रीता।

पाक्यौ जमिकैं
समै के आतप मैं
काहे- हौं बबा
तुम्ह का समुझिहौ
हौं भींतरि तैं रीतौ।
6
आँसू लुकाए
दर्द लगाके सीने
वह मुस्काए
लड़े कड़ी धूप से
देने को हमें छाँव।

आँसु लुपाइ
पीर छाती लगाइ
बु मुसक्याबै
लरै कर्रे घाम तैं
हमहिं छैंया दैबे।
7
कई दिनों से 
हुआ नहीं मिलना 
रूठे हो पिया 
या बदला ठिकाना 
बेकल फिरे जिया।

केते दिनाँ तैं
नाहिं भैंट भई ऐ
रिस हौ पिया
जु पै बदलौ ठिया
अकल फिरै जिया।
8
बोलती आँखें 
पड़ा ज़ुबाँ पे ताला 
कौन जाने है  
इस जग में नया 
अब क्या होने वाला।

बोलत नैन
पर् यौ जबान् पै तारौ
कौ जानतु ऐ
जाय जग मैं नयौ
अजौं का हैबे बारौ।
9
उजली बाती
कोरे माटी के दीप
तन जलाएँ
उजाले की ख़ातिर
हँस पीड़ा पी जाएँ।

फक्क ऐ बाती
कोरे माटी दियला
तनु बरावैं
उज्यारन के लएँ
हँसि पीर अंचऐं।
10
सुबके रात
अमावस ने मेरा
चाँद लुकाया
जलाके तन लौ ने
रजनी को हर्षाया।

सुसुकै रैनि
अमाउस नैं मोरौ
चंदा दुरायौ
बराइ तनु लौ नैं
रयनि कौं हर्षायौ।
11
डराए डर
जब तक ना उसे
राह दिखाएँ
थामे रहे उँगली
मनमाना नचाए।

झझकावत
भय जौं लौं न वाहि
गैल दिखाबैं
गहैं रहै आंगुरी
मनमानौ नचावै।
12
लगी माँगने
मुसकानों का कर्ज़
क्यों ज़िंदगानी
छीन कर वसंत
क्यों दे गई वीरानी।

लग्यौ याचिबे
मुल्कनि कौ करजु
काहे जीबन
छिनाय मधुमास
काहे दै ग्यौ नीजन।

-0-

2-ताँका- डॉ. भीकम सिंह
1
नि: शब्द हुआ
दिल का अनुराग
याद मुझे था
जब फैली मुस्कान
भीतर में दु:ख था।

अबोल भई
हिय की रसरीती
यादि मो हुतौ
जबैं बगरी मुस्की
भींतरि दूखु हुतौ।

2
तंग गली में 
सूनापन बिखेरे 
गुलमोहर 
खामोशी से देखता 
प्रिय की दोपहर।

साँकरी खोरी
नीजन बगराबै
गुलमुहर
अबोल ह्वै देखतु
पिय की दुपहरी।
3
पकड़े हुए 
धूप की टहनियाँ 
घास के लिए 
गुलमोहर बाँधें
फूलों की पोटलियाँ 

पकरैं भऐं
आतप की डारनि
घास के काजैं
गुलमुहर बांन्हैं
फूलनि पुटरियाँ।
4
फूल पहनें 
सावधानी में खड़े 
गुलमोहर 
देखके धूप खिले 
हवा की भौंह चढ़े।
5
फूल पहिरैं
सावधानी मैं ठाड़े
गुलमुहर
देखिकैं घाम खिलै
वाय की भौंह चढ़ै।
6
रात चाँदनी 
प्रेम की मुंडेर को
लगी लाँघने 
कोना- कोना उठके
जैसे लगा ताँकने।

राति उँजेरी
पेम की मुँडगारी
लगी लाँघिबे
कोनौ- कोनौ उठिकैं
जनु लग्यौ ताकिबे।

 -0-

3-विभा रश्मि


बुधवार, 13 मार्च 2024

1163

 डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री   [ ब्रज अनुवाद-रश्मि विभा त्रिपाठी]

1
बाँचो तो मन
नैनों की खिड़की से
पूर्ण प्रेम के
हस्ताक्षर कर दो
प्रथम पृष्ठ पर।

हिय बाँचौ तौ
नैननि दरीची सौं
दस्खत करौ
आखे अनुराग के
अगवारी पन्ना पै।
2
रजनीगंधा
हो सुवासित तुम
अँधेरे में भी,
तुम्हारे अस्तित्व से
जीवन संचार है।

रजनीगंधा
हौ गमकत तुव
अँध्यारे मैं उ
तिहारे ह्वैवे तैं ऐ
जीबनु संचरतु।
3
रजत - कण
बिखेरे मेरा मन
मुसकानों के
प्रिय तेरे आँगन
यों बरसा जीवन।


रूपे के कन
आवापै मोरौ मन
मुलकिनि के
पिउ तो अँगनाई
जौं बरस्यौ जीबनु।
4
तुम विवश
हो मेरी मुस्कान- सी
पुण्यसलिला
नहीं छोड़ती धर्म
उदास हो बहती।

तैं परबस
मो मुसकनियाँ सी
पुन्यसलिला
ना छाँड़ै धरम, ह्वै
उचाढ़ी परबाँही।
5
लौटाने आया
जिसने ली उधार
धूप जाड़े में
कर रहा प्रचार
गर्मी की भरमार।

फेरिबे आयौ
जानैं लयौ करज
घाम जाड़े मैं
सिगकौं ई बताई
ग्रीषम अधिकाई।
6
खोले द्वार यूँ
बोझिल पलकों से,
नशे में चूर
कदमों के लिए भी,
मंदिर के जैसे ही।

उघ्टे द्वार जौं
भारी पलकन सौं
मद में चूर
पाँइनि के लएँ उ
मंदिर ई की नाँईं।
7
टूटना - पीड़ा
उससे भी अधिक
पीड़ादायी है
टूटने- जुड़ने का
विवश सिलसिला।

टूटिबौ- पीर
वातैं ऊ अकूहल
पीर दिवैया
टूटिबे जुरिबे कौ
परबस क्रम ऐ।
8
घृणा ही हो तो
जी सकता है कोई
जीवन अच्छा
किन्तु बुरा है होता
प्रेम का झूठा भ्रम।

अलिच्छ होइ
तौ जी सकतु कोऊ
जीबनु आछौ
पै बिरम अनेरौ
हिलनि कौ अनैसौ।
9
तोड़ते नहीं
शीशातो क्या करते
सह न सके
दर्द- भरी झुर्रियाँ
किसी का उपहास।

टोरत नाहीं
सीसा, का करत तौ
अएरि सके
न पीर भरीं रेखैं
काहू कौ हँसी- ठट्ठौ।
10
भरी गागर
मेरी आँखों की प्रिय
कुछ कहती,
जीवन पीड़ा सहती
लज्जितन बहती।

छक्क गगरी
पिय मो नैननि की
कछू उच्चरै
जीबनु पीर सहै
कनौड़ी, नाहिं बहै।
11
बचपन था-
जहाँ झूलता मेरा,
टँगा है मन
ननिहाल के उसी
आम के पेड़ पर।

सिसुताई ई
जहँ रम्कति मोरी
उरम्यौ हिय
ननसार के वाई
अंबुआ बिरिछ पै।
12
पास में खड़ा
मोटर पुल नया,   
पैदल पुल-
अब चुप-उदास 
था लाया हमें पास।

ढिंयई ठाड़्यौ
मोटर पुल नयौ
पैदरि पुल
अब चुप्प उचाढ़
हमें ढिंयाँ लायौ हुतौ।

-0-